हर गुज़रता लम्हा अब मुद्दतों सा जान पड़ता है
तुम्हारे आने का इंतज़ार कुछ इस कदर है दिल को
नहीं मालूम मुझे कौन है ज़्यादा पागल
धड़कन, जो इस ख्याल पर ही नाच उठी है
मौसम, जो इस बात के ज़िक्र पर खिल उठा है
मैं, जो आईने के सामने शरमाई सी आ बैठी हूँ
कैसे कहें तुम्हे सबसे ज़्यादा चाहते हैं हम
अब तो इस घर की हवाएं भी यही दावा करती हैं
इस चादर की सलवटें भी मेरी ही तरह तुम्हारी दीवानी हैं
तुम्हे एक बार और छू लेने का ख्वाब ये भी दिन रात देखती हैं
घर के हर कोने में तुम्हारी यादें बसी हैं
जो तन्हा गुज़ारी हैं सदियाँ यहाँ हमने
तेरे साथ गुज़ारे लम्हों से वो बड़ी नहीं हैं
बस उन्ही चंद लम्हों के नाम करी है ये ज़िन्दगी
goood
ReplyDeletePlease try more of this kind of structuring...
ReplyDeleteनहीं मालूम मुझे कौन है ज़्यादा पागल
धड़कन, जो इस ख्याल पर ही नाच उठी है
मौसम, जो इस बात के ज़िक्र पर खिल उठा है
मैं, जो आईने के सामने शरमाई सी आ बैठी हूँ...
I really like this :)