Thursday, July 29, 2010

ये ढलता हुआ सूरज एक पैगाम दे रहा है
कि फिर एक रात को तुमसे जुदा हूँ मैं
चाँद कि चंचल मादकता में डूबी हुई है दुनिया सारी
फिर भी सुन ऐ चांदनी आज तुझसे खफा हूँ मैं

आज फिर एक दिन गुज़र गया तेरी बाहों में
और फिर कटेगी एक रात तेरी यादों में
फिर निकल जाएगी रात दूरियों की शिकायतों में
मन्नतें अनेक करनी हैं की आ जाओ तुम फिर ख्वाबों में

काश बस में होता कि वक़्त को थाम लेती मैं
तुम्हारी बाहों में समां कर सूरज को टोक देती मैं
नहीं ढलने देती दिन कि जब तुम होते मेरे पास
चाँद भी समझ जाता मेरी कही इतनी बात
कि कुछ नहीं वो भी जो चांदनी न हो उसके पास

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