अक्सर सोचा करती हूँ अकेले में
कि क्या ज़िन्दगी इसी का नाम है
जो पास है वो अपना नहीं और जो दूर है वो उससे ताल्लुकात नहीं
क्यों अपना कोई अपना नहीं रहता और जो दूर है उसका आसरा नहीं रहता
चंचलता ऐसी की पानी के जैसी
ज़िन्दगी का कोई एक रास्ता नहीं होता
पग-पग बिखरती पग-पग संभलती
पल में ठहरती पल में बदलती
शायद जीना भी इसी का ही नाम होता
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