टूटे हुए शब्दों को यूँ जोड़ता न था
क्यों आज फिर मैं ग़ज़ल लिख रहा हूँ
तेरे खयालों में डूबकर रात दिन लिख रहा हूँ
कल रात तू चुपके से चाँद ढले आ गयी
तेरी नजाकत देख कर चांदनी भी शर्मा गयी
तेरे आँचल को समेट कर चाँद बादल में जा छुपा
तेरा ये रूप देखकर शायद मैं शायर बना
तेरी गहरी आँखें कैसे झील के जैसी लगने लगी
तेरे चेहरे का नूर कैसे सूरज की किरण बन गया
आज से पहले ये कभी न हुआ था
तू कैसे मुझे खुदा की कोई मूरत लगने लगी
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