एक छोटा सा सपना ले कर जी रही थी मैं
पत्थर की ठोकर से वो भी टूट गया
उस सपने में बसाया था छोटा सा जहाँ
कांच की तरह वो भी टूटकर बिखर गया
बहुत ज़ालिम होती है दुनिया भी
किसी और को मुस्कुराता नहीं देख पाती
किसी के घर में लौ जलती देख
जल की गगरी भर भर लाती
बड़ी मशक्कत के बाद समेटी थी
जो मुट्ठी भर खुशियाँ
वो हाथों से सारी फिसल गयी
खामोश खड़ी मैं बिखर गयी
क्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?
लोगों के फैसलों पर हम सांस लेते हैं
बड़ी मशक्कत के बाद समेटी थी
ReplyDeleteजो मुट्ठी भर खुशियाँ
वो हाथों से सारी फिसल गयी
खामोश खड़ी मैं बिखर गयी!
कमाल कि पंक्तियाँ है, बहुत ही सुन्दर!
खूबसूरत अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसोचते हैं हम भी कभी ...
ReplyDeleteदूसरों के घर की जलती आग पर लोग
यूँ भी हाथ सका करते हैं ....
कविता अच्छी लगी ...!
क्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?
ReplyDeleteजी हाँ शायद इसी को कहते हैं
excellent writing dis time..i mean simple yet so powerful.
ReplyDeleteक्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?
ReplyDeleteलोगों के फैसलों पर हम सांस लेते हैं
शायद ज़िन्दगी इसी का नाम है………।सुन्दर प्रस्तुति।
सराहनीय
ReplyDeletekanch se toote sapano kee kirchan mahsoos karatee rachna ke liye badhai
ReplyDeletenicely done
ReplyDeletethough
can i give you 1 suggestion please??
try to smooth out the meters
even if you dont it vry much conveys what you want to =)
it's nice to c what others think great
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