Monday, August 16, 2010

एक छोटा सा सपना ले कर जी रही थी मैं
पत्थर की ठोकर से वो भी टूट गया
उस सपने में बसाया था छोटा सा जहाँ
कांच की तरह वो भी टूटकर बिखर गया

बहुत ज़ालिम होती है दुनिया भी
किसी और को मुस्कुराता नहीं देख पाती
किसी के घर में लौ जलती देख
जल की गगरी भर भर लाती

बड़ी मशक्कत के बाद समेटी थी
जो मुट्ठी भर खुशियाँ
वो हाथों से सारी फिसल गयी
खामोश खड़ी मैं बिखर गयी

क्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?
लोगों के फैसलों पर हम सांस लेते हैं

10 comments:

  1. बड़ी मशक्कत के बाद समेटी थी
    जो मुट्ठी भर खुशियाँ
    वो हाथों से सारी फिसल गयी
    खामोश खड़ी मैं बिखर गयी!

    कमाल कि पंक्तियाँ है, बहुत ही सुन्दर!

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  2. सोचते हैं हम भी कभी ...
    दूसरों के घर की जलती आग पर लोग
    यूँ भी हाथ सका करते हैं ....
    कविता अच्छी लगी ...!

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  3. क्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?

    जी हाँ शायद इसी को कहते हैं

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  4. excellent writing dis time..i mean simple yet so powerful.

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  5. क्या ज़िन्दगी इसी को कहते हैं?
    लोगों के फैसलों पर हम सांस लेते हैं
    शायद ज़िन्दगी इसी का नाम है………।सुन्दर प्रस्तुति।

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  6. kanch se toote sapano kee kirchan mahsoos karatee rachna ke liye badhai

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  7. nicely done
    though
    can i give you 1 suggestion please??
    try to smooth out the meters
    even if you dont it vry much conveys what you want to =)

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  8. it's nice to c what others think great

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