Sunday, August 15, 2010

चुपके चुपके तिरछी निगाहों से
रह रह कर उसको ही तक रही थी मैं
उसके नैनो में नैन डालकर
ख़ामोशी में भी बातें कर रही थी

उसकी आँखें अपनी तनहाइयों की
एक अलग ही दास्ताँ कह रही थी
वो मुस्कुरा रही थी
पर चूर चूर हो कर रो रही थी

उन आंसुओं के समंदर में
सब कुछ धुन्दला जान पड़ रहा था
वो सौ कहानी बताकर भी
किसी एक कहानी में खो रही थी

न जाने कितना दर्द छुपा था
उस मासूम चेहरे के पीछे
न जाने कितनी ही शिकायतें
तैर रही थी उन आँखों में

उन आँखों से एकाएक वो आंसुओं का समंदर बह निकला
अचानक चौंक गयी मैं जब कुछ गीलापन लगा गालों पर
फिर समझ आया की आईने में
अपना ही प्रतिबिम्ब देख रही थी मैं 

3 comments:

  1. हँसते हुए भी मन रोता है
    अक्सर यह भ्रम होता है

    सुन्दर रचना

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