चुपके चुपके तिरछी निगाहों से
रह रह कर उसको ही तक रही थी मैं
उसके नैनो में नैन डालकर
ख़ामोशी में भी बातें कर रही थी
उसकी आँखें अपनी तनहाइयों की
एक अलग ही दास्ताँ कह रही थी
वो मुस्कुरा रही थी
पर चूर चूर हो कर रो रही थी
उन आंसुओं के समंदर में
सब कुछ धुन्दला जान पड़ रहा था
वो सौ कहानी बताकर भी
किसी एक कहानी में खो रही थी
न जाने कितना दर्द छुपा था
उस मासूम चेहरे के पीछे
न जाने कितनी ही शिकायतें
तैर रही थी उन आँखों में
उन आँखों से एकाएक वो आंसुओं का समंदर बह निकला
अचानक चौंक गयी मैं जब कुछ गीलापन लगा गालों पर
फिर समझ आया की आईने में
अपना ही प्रतिबिम्ब देख रही थी मैं
हँसते हुए भी मन रोता है
ReplyDeleteअक्सर यह भ्रम होता है
सुन्दर रचना
sundar abhivyakti badhai
ReplyDeleteThank You
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