Saturday, August 14, 2010

आज रात खिड़की पर बैठी मैं
गुमसुम खोयी हुई सी
दूर गगन में चाँद को ताक रही थी
उसकी सफ़ेद चांदनी को खाली बैठे निहार रही थी

कितनी खूबसूरत है ये चाँद की निर्मल छाया
जो अभी अभी मेरे चेहरे को चूम गयी है
कितनी पावन है इस चांदनी की ठंडक
जो बारिश की तरह मुझ पर बरस रही है

काली घनेरी रात में चाँद की ये चांदनी
जैसे रात के अँधेरे में जुगनू फैलाते रौशनी
 माना की मेरे मन में भी हैं कई अंधियारे कोने
पर इसी चाँद से ले कर एक ज्योति मैं भी जला लूं

आज पूर्णिमा की रात आ ही गयी है
तो अपने घर में भी मैं दिए जला लूं
दुःख तो हैं कदम कदम पर जीवन में
इन दुखों के बीच थोड़ी खुशियाँ मना लूं

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